आज के अखबार में दिल्ली सरकार के एक विज्ञापन ने मेरा ध्यान खींचा। इसमें कहा गया था: अब दिल्ली में एक ईमानदार सरकार है। उत्सुकता के साथ मैंने आगे पढ़ा। जैसा कि मेरा अनुमान था, सारी बातें उन चीजों को लेकर थीं जिसे अरविंद केजरीवाल की सरकार दिल्ली की जनता के फायदे के लिए मुफ्त में कर रही है। इसके बाद इसमें बताया गया था कि आखिर कैसे यह सरकार जनता को इतनी सुविधाएं देने में सक्षम हो पाई है और इस तरह की योजनाओं के लिए पैसा कहां से आ रहा है।
HONEST GOVT ADVERT MARCH 28 2016
कोई भी कह सकता है कि यह महज राजनीति और प्रशंसा बटोरने का तरीका है। शायद ऐसा हो, लेकिन हर किसी को इस बारे में दिए गए विवरण पर ध्यान देना चाहिए और जो बातें कही गईं थीं, उनमें से ज्यादातर पर मैं भी सहमत था, और इसके पीछे कारण भी था। विज्ञापन में तीन बातें कही गईं थीं…
1. एक एलिवेटेड रोड को बनाने का अनुमानित खर्च 325 करोड़ रुपए था। सरकार ने 200 करोड़ रुपए में इस काम को पूरा कर लिया और 125 करोड़ रुपए बचा लिए।
2. पहले एक डिस्पेंसरी बनाने पर 5 करोड़ रुपए का खर्च आता था। अब 20 लाख रुपए में इसे तैयार कर दिया जाता है।
3. पहले एक आईटीआई को बनाने में 24 करोड़ रुपए का खर्च आता था, अब इसे 16 करोड़ रुपए में बना लिया जाता है और 8 करोड़ रुपए की बचत कर ली जाती है।
आप में से कुछ लोग कह सकते हैं कि इसमें क्या बड़ी बात है, लेकिन राजनीति को दरकिनार कर निष्पक्षता से इसे देखिए। खासकर एक ऐसे देश में जहां ज्यादा लागत और ज्यादा समय लगना अपवाद की बजाय नियम जैसा बन गया है, तब आप समझेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूं। अब यह किसी से छुपा नहीं है कि ज्यादातर सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए लागत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना मानक बन गया है। खराबी तो तब और है जब प्रॉजेक्ट की लागत जरूरत से ज्यादा हो, लेकिन इस पर जो रकम खर्च की जाए, वह जरूरत से भी कम हो। इसलिए एक तरह से यह बहुबाधा वाली स्थिति है।
क्या कभी आपने यह सोचा है कि ब्रिटिश शासनकाल में करीब 100 साल पहले जो चीजें बनाई गईं या सैकड़ों साल पहले राजा-महाराजाओं ने जो निर्माण करवाया, वे अभी तक मजबूती से कैसे खडे़ हैं, और हालिया वक्त में जो निर्माण करवाया गया उनमें चंद सालों के भीतर दरारें कैसे पड़ गईं? सालों पहले क्यों, पता नहीं आप में से कितने लोगों को याद होगा कि साल 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों से ठीक पहले दिल्ली के नेहरू स्टेडियम से सटा हुआ इंडोर अरीना बनाया गया था। उद्घाटन समारोह के दौरान ही इसमें लीकेज की समस्या हो गई।
लेकिन तब, कोई कैसे 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों को भूलकर सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार की बात कर सकता है जिसे सामान्य तौर पर पिछली केंद्र सरकार के साथ जो भी गलत था, उसके पर्याय के तौर पर देखा जाता है। खेलों में भ्रष्टाचार संबंधी मुद्दों पर मैंने काफी कुछ लिखा है, इसमें यह भी शामिल था कि कैसे नई जगहों के निर्माण या फिर पुराने स्टेडियमों के पुनर्निर्माण के नाम पर लागत को बढ़ाकर शर्मनाक तरीके से पैसे निकाले गए। शर्मनाक यह है कि यह सब कुछ ‘देशभक्ति’ और ‘राष्ट्रीय प्रतिष्ठा’ आदि के नाम पर किया गया। मैंने अगस्त 2010 में इस पर लिखा भी था। (क्लिक कर पढ़ें…)
एक चीज जो हमेशा सिर उठा सकती है वह है जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम की पुनर्निमाण की लागत। स्टेडियम के रेनोवेशन में 1000 करोड़ रुपए का खर्च आया!! एक स्टेडियम के रेनोवेशन पर इतना खर्च हो सकता है, आपने कभी सोचा था? लेकिन, यह खर्च भी जस्टिफाइ हो गया। सोचिए, अकेले स्टेडियम के रेनोवेशन के जरिए कई लोगों ने कई पीढ़ियों के लिए कमा लिया होगा।
सिर्फ कॉमनवेल्थ खेलों की ही बात क्यों करें? तकरीबन सारे प्रॉजेक्ट्स में, चाहे वह ऐसी निजी सेक्टर परियोजनाएं हों जिनकी फंडिंग में सरकारी एजेंसियां शामिल हैं, परियोजना की लागत जरूरत से कहीं ज्यादा होती है। लेकिन अतिरिक्त पैसा जाता कहां है, यह किसी से छुपा नहीं है।
लिहाजा, ऐसे वक्त में अगर किसी राज्य का मुख्यमंत्री यह कहता है कि बड़ी परियोजनाओं के लिए आवंटित धनराशि में से पैसा बचाकर जनकल्याण के कार्यों में खर्च किया जा रहा है, तो इसमें गलत क्या है? ईमानदारी से कहूं तो मुझे इसमें मेरिट के सिवाय कुछ नहीं दिखाई दे रहा। बचाया गया पैसा आपका और मेरा है, फिर इस तरह क्यों न किया जाए खर्च!
दरअसल, मैं सभी सरकारों से गुजारिश करूंगा कि वे इस पहलू पर भी गौर करें। किसी न किसी परियोजना की लागत पर बारीकी और गंभीरता से ध्यान दें तो लागत का बड़ा हिस्सा बचाया जा सकता है और फंड का इस्तेमाल अन्य परियोजनाओं पर खर्च किया जा सकता है, समाज कल्याण के लक्ष्य साधे जा सकते हैं।
कुछ बिचौलियों का नुकसान होगा, लेकिन वोटर खुश होगा, समाज को फायदा पहुंचेगा। तो, ऐसा करिए न!